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साख सहकारी समितियों पर आरबीआई तब जागी जब चिड़िया चुग गई खेत

साख सहकारी समितियों का रजिस्ट्रेशन केन्द्र और राज्य स्तर पर गठित सहकारिता कानून के अन्तर्गत किया जाता है और इनके रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट पर बकायदा सरकारी सील और विभागीय हस्ताक्षर और अनुमोदन होते हैं.

लेकिन बहुत कम लोग ही जानते हैं या यह कहना भी उचित होगा कि लगभग न के बराबर लोगों को पता है कि ऐसी समितियों के क्रियाकलापों में विभाग का या सरकार की न कोई नजर होती है और न ही कोई गारंटी. न ही पब्लिक द्वारा दिए गए डिपाजिट की इंश्योरेंस या गारंटी होती है.

इसके अलावा सहकारी समिति सिर्फ सदस्य से ही पैसे ले सकती है और उन्हीं को लोन दे सकती है एवं कंपनियों की तरह आम सभा बुलाना, खाते बही आडिट करवाना, रजिस्ट्रार के समक्ष विवरणी दाखिल करना, आदि अनुपालनों को निभाना इनका दायित्व है और साथ ही केन्द्र और राज्य स्तर पर गठित सहकारिता विभाग एवं सहकारिता मंत्रालय का दायित्व है कि वे इन नियमों का पालन करवाऐं और पालन न होने पर कड़ी कार्यवाही बिना देरी के करें.

सरकारी गारंटी तो नहीं है लेकिन सरकार से यह अपेक्षा तो आम जनता कर सकती है कि आपके सील वाले सर्टिफिकेट का फायदा उठाकर इन समितियों ने जो पब्लिक से पैसा लिया है, उन नियमों का पालन न करने पर सख्त कार्यवाही करें.

आमतौर पर यह देखा जा रहा है कि ये साख समितियां नियमों की खुलेआम अवहेलना कर रही है, जनता से बिना सदस्य बनाए पैसे लिए जा रहे हैं, प्रापर्टी में पैसे डाले जा रहे हैं, कंपनियों को और फर्जी लोगों को लोन बांटे जा रहे हैं और इसका निष्कर्ष यह है कि आम जनता का पैसा डूब रहा है, लूटा जा रहा है, न ही ब्याज मिल रहा है और न ही मूल धन और वो भी सरकार की नाक के नीचे.

सहकारी बैंकों को तो आरबीआई ने अपनी निगरानी में ले लिया लेकिन इन सहकारी समितियों को क्यों छोड़ दिया. इन पर किसी का भी कंट्रोल न होने पर और विभाग एवं मंत्रालय द्वारा पल्ला झाड़ने पर आम व्यक्ति ठगा सा महसूस कर रहा है.

हाल में ही सिम्ब्योसिस साख सहकारी समिति जो कि उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में काम करती है, उसने आम जनता, मध्यमवर्गीय और बुजुर्गों के करोड़ों रुपये की जमापूंजी चंपत कर भाग गए हैं. न ही सहकारी विभाग, न ही मंत्रालय, न ही सरकार, न ही समिति के पदाधिकारियों, न ही समिति का आफिस, न ही इनके मैनेजर का कोई अतापता या जबाब देने वाला कोई है और ऐसे अनगिनत उदाहरण हर रोज देखे जा रहे हैं और कही कोई सुनवाई नहीं.

साफ समझ आता है कि ऐसी समितियों को किसी न किसी रुप से राजनितिक संरक्षण प्राप्त हैं. आरबीआई ने कुछ समय पहले चेताया जरूर था पर कोई ठोस कार्यवाही या नियमावली नहीं बनाई और लूट जारी रही.

हाल में आरबीआई ने एक नोटिफिकेशन जारी कर लोगों को सावधान किया और नियम बनाया कि ऐसी सहकारी समिति अपने नाम में बैंक शब्द का इस्तेमाल नहीं कर सकती क्योंकि इनका बैंकिंग कानून से कोई लेना देना नहीं होता.

लेकिन यह सहकारी समितियां डिपाजिट लेना, लोन देना, आदि सारे काम बैंक जैसे ही करती है और इनको कहने वाला या नजर रखने वाला कोई नहीं. न सरकार, न सहकारी विभाग और न ही प्रशासन या पुलिस इन पर कोई कार्यवाही कर पाते हैं.

और आरबीआई भी जागा तो सिर्फ चेतावनी दे रहा है, वो भी तब जब जनता लुट चुकी है. जब ऐसी सहकारी समितियां बैंक की तरह काम कर रही है तो इनको सरकार और आरबीआई की निगरानी में रखने में देरी क्यों?

सरकार, आरबीआई और सहकारी विभाग को तुरंत चाहिए कि ऐसी साख सहकारी समितियों को अपने कंट्रोल और नियमावली के अन्तर्गत लें ताकि आम जनता के पैसे लुटने और डूबने से बचें.

साथ ही यह सबसे ज्यादा जरूरी है कि जब सरकारी विभाग किसी भी संस्था को सरकारी सील के अन्तर्गत कोई भी सर्टिफिकेट जारी करता है तो यह नोट उस पर जरुर डालें कि सरकार द्वारा किसी भी रुप से कोई अनुमोदन नहीं है एवं जनता समिति के सदस्य और वित्तीय स्थिति का आंकलन कर ही निवेश करें. सरकारी विभाग से इसकी नियमावली पाई जा सकती है और समिति के द्वारा नियमों का पालन किया जा रहा है, इसकी जानकारी सरकारी पोर्टल से ली जा सकती है.

किसी भी तरह आम जनता से और विभिन्न राज्यों में वित्तीय लेनदेन करने वाली सहकारी समितियों को आरबीआई की निगरानी में रखना समय की मांग और जरुरत है अन्यथा सूक्ष्म और छोटे स्तर पर काम करने वाली यह सहकारी समितियां लूट का आसान साधन से ज्यादा कुछ नहीं होंगी और सबसे ज्यादा सहेगा वो सिर्फ मध्यम और गरीब वर्ग.

इसलिए यह कहना उचित है कि आरबीआई तब जागा जब यह सहकारी समितियां आम जनता को लूट चुकीं.

लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर

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