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साइंटिफिक-एनालिसिस: सुप्रीम कोर्ट का नया ध्वज व प्रतिक उसके लोकतांत्रिक स्तम्भ को ढहा देगा

महामहिम राष्ट्रपति महोदय को प्रमाणिक दस्तावेजों के आधार पर भेजे गये लोकतन्त्र के ग्राफिक्स प्रारूप के तहत आपके साइंटिफिक-एनालिसिस ने पहले ही जमीनी स्तर पर मूर्त रूप ले चुकी घटनाओं के आधार पर बताया था कि न्यायपालिका का स्तम्भ झुक चुका हैं वो अब पहले जैसा सीधा व स्थिर नहीं रहा हैं। अब उच्चतम न्यायालय को नये प्रतिक व ध्वज देना इस झुके हुए न्यायपालिका के स्तम्भ को ढहा देगा और उसे लोकतन्त्र के प्रारूप में मटियामेट कर देगा |

न्यायपालिका लोकतन्त्र का महत्तवपूर्ण आधार स्तम्भ हैं वो राष्ट्रपति के सर्वोच्च पद को शपथ दिलाने व उसके फैसलों की भी संवैधानिक समीक्षा करने का अधिकार रखता हैं | राष्ट्रपति के समान संविधान पीठ की फुल बैंच को भी संविधान संरक्षक का दर्जा प्राप्त हैं अर्थात् सामुहिक न्यायपालिका लोकतन्त्र के ढांचे में राष्ट्रपति के समानान्तर हैं उसके अधीन नहीं हैं। प्रशासनिक रूप से कानून बनाने, कार्यवाही के आदेश में राष्ट्रपति के पद को बडा माना गया हैं। नया प्रतिक व ध्वज भारतीय सेना के अनुरूप दिया गया हैं जिसमें थल सेना, जल सेना व वायु सेना के अलग-अलग प्रतिक व ध्वज हैं | भारतीय सेना लोकतन्त्र की स्वतंत्र संस्था हैं जिसके प्रमुख राष्ट्रपति होते हैं जबकि ढांचागत लोकतन्त्र के स्तम्भ न्यायपालिका के प्रमुख भारत के मुख्य न्यायाधीश हैं।

दो दिवसीय राष्ट्रीय जिला न्यायपालिका सम्मेलन के समापन सत्र में सुप्रीम कोर्ट की 75वी वर्षगांठ पर राष्ट्रपति ने नये ध्वज व प्रतिक का अनावरण करा | न्यायपालिका के ईतिहास और उसके कार्यों को देखकर यदि डाक टिकिट, सिक्का, कागज के नोट पर विशेष फोटो की सिरिज जारी होती या अनावरण होता तो वह विज्ञान के आधार पर सैद्धांतिक रुप से सही होता | यहा प्रतिक सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के लिए जाहिर हुआ इससे वह राज्यों के हाईकोर्ट, जिला अदालतों से पृथक हो जायेगा | जिला अदालतें, राज्यों के उच्चय न्यायालय व फिर उच्चतम न्यायालय मिलकर न्यायपालिका का स्तम्भ बनाते है। इसमें न्याय देने की प्रक्रिया एक श्रृंखला में निचे से ऊपर की ओर चलती हैं।

यदि यह प्रतिक पुरी न्यायपालिका के लिए होता तो तर्कसंगत, सैद्धांतिक एवं मौलिक रूप से सही होता जो विघटन की दिशा में न धकेल कर न्यायिक तन्त्र के एकीकरण का काम करता | न्यायपालिका इस प्रतिक का इस्तेमाल नीचे से लेकर ऊपर तक अदालतों से जारी आदेश, प्रमाण, दस्तावेजों व नकलों में लोगों की तरह अशोक स्तम्भ के स्थान पर करने का आदेश होता तभी संगठनात्मक प्रबंधन उभर के सामने आता और न्याय मिलने की देरी में उसे जवाबदेही ठहराया जा सकता |

प्रतिक की भाषा के रूप से किसी भी संस्था का प्रबंधन बेहतर होता है जो भारतीय सेना ने करके अपना उदाहरण सामने रख सच्चाई की मोहर लगाई हैं | इस सार्वभौमिक धरातलीय अनुभव के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के प्रतिक के साथ कार्यपालिका, विधायिका व मीडिया जो लोकतन्त्र के अन्य तीन स्तम्भ हैं उनका भी प्रतिक जारी होना चाहिए था ताकि लोकतान्त्रिक व्यवस्था का प्रबंधन सुधर जाता | भारत में कार्यपालिका कब सरकार बन जाती और सरकार कब कार्यपालिका यह घालमेल व लोकतन्त्र बर्बाद होने की सबसे बडी बिमारी जड से खत्म हो जाती |

सिर्फ और सिर्फ उच्चतम न्यायालय के लिए प्रतिक जारी करना उसे लोकतन्त्र के ढांचे में जो मजबूत स्तम्भ के रूप में हैं उससे पृथक करना हैं अर्थात् भारत-सरकार के एक हिस्से के रूप में हमेशा के लिए बाहर करना हैं व संविधान के रूप मे जो अधिकार व शक्तियां दे रखी हैं उसे धुमिल कर पृथक करना हैं | राष्ट्रीय पर्वों पर मुख्य न्यायाधीश द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि न देना व गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय सलामी में मुख्य न्यायाधीश को नीचे बैठाना का मामला पहले ही चल रहा हैं जबकि मुख्य न्यायाधीश से शपथ लेने वाले व उनसे भी आगे शपथ लेने वाले मंच पर सबसे ऊपर बैठते हैं |

नये प्रतिक के साथ न्यायपालिका को चलना हैं तो सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठों के लिए एक अलग सेल / प्रकोष्ठ की व्यवस्था करनी होगी जो अपने आदेशों में राष्ट्रीय प्रतिक या चिह्न अशोक स्तम्भ का इस्तेमाल कर सके | समय-समय पर संविधान के अनुसार संविधान पीठों के फैसले सर्वोपरी हो जाते हैं तब एक प्रतिक राष्ट्रीय चिह्न से बडा व अपने अधीन आदेश देता हुआ असंवैधानिक दिखेगा | भारत-सरकार से जुडें मामले इसी सेल / प्रकोष्ठ में ही सुने जा सकेंगे अन्यथा उच्चतम न्यायालय के आदेशों की कागज पर आन रिकार्ड कोई वैल्यू न मानने का रास्ता ब्यूरोक्रेट निकाल लेंगे |

अब बात आती हैं उच्चतम न्यायालय को दिये नये ध्वज की जो अपने आप में तकनीकी रूप से ऐरर व विज्ञान की भाषा में वायरस को इंगित करता हैं | भारतीय सेना चलायमान हैं जो देश की सीमा व कभी-कभी उसके बाहर आपरेशन व अन्य देशों में सामुहिक रूप से अभ्यास व काम भी करती हैं जबकि न्यायपालिका तो स्थिर व लोकतन्त्र का मजबूत स्तम्भ हैं |

जम्मू-कश्मीर के अलग झण्डे को लेकर विवाद पूर्णतया खत्म नहीं हुआ और उसके घाव अभी तक भरे नहीं तब भी नये झण्डे की नासूर बिमारी का संक्रमण फैला दिया गया | अब सबसे बडा सवाल यह हैं कि सुप्रीम कोर्ट के भवन पर उसको दिया नया ध्लज लहरायेगा या भारत का राष्ट्रीय ध्वज या दोनों झण्डे एक साथ फहराये जायेंगे | सुप्रीम कोर्ट ने पीछले दो-तीन वर्षों से संविधान दिवस बनाने की अच्छी प्रथा शुरू करी हैं जिसमें महामहिम राष्ट्रपति भी हिस्सा लेते हैं | इसे न्यायपालिका का वर्ष में एक बार अपना राष्ट्रीय पर्व बनाने का मौका मीलता हैं और मुख्य न्यायाधीश पद के आगे भारतीय लगे होने के दायित्व को निर्वाह करने का एक सार्वजनिक अवसर मीलता हैं परन्तु कार्यपालिका प्रधानमंत्री के नेतृत्व में विधायिका के साथ अपना एक अलग ही संविधान दिवस बनाते हैं | सुप्रीम कोर्ट के नये तिरंगे से संविधान दिवस का कार्यक्रम एक संस्था का कार्यक्रम बनकर रह जायेगा जबकि कार्यपालिका व विधायिका का संविधान दिवस जिसे विपक्ष बायकॉट करता हैं वो राष्ट्रीय पर्व बन जायेगा | इससे भी अटपटा व गिरा हुआ दृश्य यह बनेगा कि संविधान संरक्षक न्यायपालिका दूर खडी सिर्फ देखती नजर आयेगी जो चाहकर भी कुछ नहीं कर पायेगी |

वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के भवन पर उच्चतम न्यायालय का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हैं उसके निचे भारत-सरकार भी लिखा हैं | यह आगे चलकर हटा दिया जायेगा और उसकी जगह भारत-सरकार का उपक्रम लिखने की मांग हो जायेगी और सेन्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में भारत-सरकार का स्थाई हिस्सा होने के नाते उच्चतम न्यायालय व उसके बाहर वकीलों के चेम्बरों को भी भव्य व सभी आधुनिक सुविधाओं से लेस करने की मांग स्वत: ही खत्म हो जायेगी | इस लेख की समस्त जिम्मेदारी लेखक की है l

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

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