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डिफाल्टरों को दुलार, ईमानदारो को फटकार

जिस तरह से बैंक लोगों से चार्जेज वसूल रहा है, ऐसा लगता है कि सारे लोन की किश्तों की वसूली और प्रशासनिक खर्च आम, निरिह एवं अनभिज्ञ जनता के खातों से बैंक चार्जेज के रूप में लिया जा रहा है.

मिनिमम बैलेंस के नाम पर हर तिमाही 590/- रुपये, चैक बाउंस के नाम पर 590/- रुपये, एसएमएस के नाम पर हर महीने 18 रुपये, चेक कलेक्शन के नाम पर 18 रुपये और न जाने कितने छुटपुट चार्जेज साधारण बचत खातों से वसूल लिए जाते हैं.

दूसरी तरफ लोन डिफाल्टरों का 90% लोन माफ़ कर दिया जाता है और उन्हें दूसरा लोन देने के लिए क्लीन चिट दे दी जाती है. यह हश्र हमारे क्रांतिकारी दिवाला कानून के अन्तर्गत खुले आम सरकारी परमीशन से हो रहा है. ऐसे में बैड बैंक का गठन कितना मददगार साबित होगा यह एक बड़ा प्रश्न है?

फिलहाल तो आम जनता की जेब लूटी जा रही है. आपको हैरानी होगी कि एक आरटीआई के तहत पंजाब नेशनल बैंक ने जो आंकड़े दिए उसके अनुसार वर्ष 2020-21 में 170 करोड़ रुपये की मिनिमम बैलेंस बैंक चार्जेज की वसूली की गई.

वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान यह आंकड़ा 286.24 करोड़ रुपये था.

इसके अलावा बैंक ने बीते वित्त वर्ष में एटीएम शुल्क के रूप में 74.28 करोड़ रुपये वसूले जबकि 2019-20 में बैंक ने इस शुल्क से 114.08 करोड़ रुपये की राशि वसूले थे.

एक अन्य सवाल के जवाब में बैंक ने बताया कि 30 जून, 2021 तक उसके 4,27,59,597 खाते निष्क्रिय थे.

इस कठिन काल में जहाँ मंहगाई बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही, लोगों की आय सीमित हो रही है, कमजोर और निम्न वर्ग जिन्होंने बैंक खाते रखे है, ऐसे में मिनिमम बैलेंस शुल्क की वसूली या अन्य शुल्कों की वसूली बैंक द्वारा न्यायोचित नहीं हो सकती.

बैंक चार्जेज की वसूली आम जनता के साथ अन्याय से कम नहीं.

जहाँ एक और जरुरत है बैंकिंग सेवाओं को जन सामान्य तक पहुंचाने की और हर व्यक्ति को बैंकिंग धारा में जोड़ने की ताकि कैश का लेनदेन कम हो सके और सभी एक फार्मल अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन सके.

साफ है बैंको द्वारा चार्जेज के नाम पर की जा रही वसूली बैंकों की कार्यकारी और प्रशासनिक असक्षमता का प्रतीक है जो दर्शाता है कि बैंक अपनी लोन देने वाले की प्रक्रिया और लोन लेने वालों का निर्धारण सही ढंग से नहीं कर पाता है और इसलिए एनपीए का स्तर बढ़ता जा रहा है एवं इस असक्षमता को छुपाने के लिए आम जनता से गैर जरूरी शुल्क वसूले जाते हैं.

सही तो यह होगा कि सरकार आरबीआई की मदद से बैंकों के लिए ऐसे निर्देश और मापदंड बनाएं जो बैंकों के ऋण एप्रूवल, निर्धारण और रिकवरी तंत्र को मजबूत करें, नहीं तो कितने भी दिवाला कानून आ जाए या बैड बैंक बन जाए लोन डिफाल्टरों को दुलार मिलता रहेगा और बेचारे ईमानदार खाताधारक शुल्कों के नाम पर फटकार खाते रहेंगे.

लेखक एवं विचारक: सीए अनिल अग्रवाल जबलपुर

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